दो मंजिल मकान पर तीसरी मंजिल बनवा रहे थे शुक्ला जी ।
शाम होते होते बहुत थक चुके थे । रात को ही पुरे परिवार के साथ "नायक"
फ़िल्म देखी । इतने प्रभावित हुए नायक की भूमिका देखकर की प्रण कर लिया के आज से
कभी ना रिश्वत लेंगे ना देंगे । आखिर हर नागरिक का देश के प्रति भी कुछ फ़र्ज़ बनता
है ।
सुबह सुबह नो बजे बिजली का बिल ठीक करवाने विभाग के
दफ्तर पहुंचे । बिना बात बारह हज़ार का बिल भेज दिया था एक महीने का जबकि चार या
पांच सौ से ज्यादा का नहीं आता था हर महीने । ये आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी। एक तो इतनी गर्मी ऊपर
से इतनी लंबी लाइन । खीजते हुए लाइन में लग गए साहेब ।
ये क्या । नंबर आया तो टी-टाइम हो चुका था । गर्मी में
खड़े खड़े जल रहे थे सब लोग। बस धुआं निकलना ही बाकी था। अरे - साहिब गलती से इतना
बिल भेज दिया - शुक्ला जी बोले। घूर के खा जाने वाली नज़रों से देखते हुए चिल्ला के
बोला कर्मचारी - ये तुम हमें सिखाओगे की क्या गलत भेजा क्या सही। और लाइन से बाहर
कर दिया ।
जी तो किया मुहँ तोड़ दें उसका। पर
कर ही क्या सकते थे ? कई
जगह चक्कर काटने के बाद किसी तरह तीन हज़ार कम हुए उसपर भी अंदर के एक व्यक्ति ने
हज़ार रुपये रिश्वत मांग ली। अब मरता क्या ना करता हज़ार रुपये दे ही रहा था उसे की।
हाय री किस्मत । एक पुलिस वाले ने देख लिया पैसे देते। अब काटो तो खून नहीं ।
हड़काते हुए हाथ पकड़ के खींचता हुआ बोला - चल थाणे । रिश्वत दे रो है म्हारे सामणे
। किसी तरह हज़ार रुपये देकर हाथ जोड़कर पीछा छुट्वाया ।
आज पता नहीं किसका मुंह देखा था
सुबह सुबह । अभी घर जाने के लिए स्कूटर पर बैठकर रेड लाइट क्रॉस कर ही रहे थे की
ट्रैफिक वाले ने भी हाथ दे ही दिया । लाइसेंस - कागज दिखा । अब कुछ हो तो दिखाएँ।
गाडी बंद होगी रे। बस स्तिथि सँभालते हुए साइड ले गए। पुरे पांच सो में मामला पटा
। सोचा लगे हाथ पोलुशन भी चेक करा लें और लाइसेंस भी बनवा लें। पचास, तीन सौ। ये कोई गाड़ी का नंबर नहीं
बल्कि पचास की रिश्वत पोलुशन वाले ने और तीन सौ लाइसेंस वाले को दी । फीस अलग ।
जैसे तैसे घर पहुंचे तो पता चला
इनकम टैक्स का नोटिस आया है। अकाउंटेंट को फोन किया की इनकम टैक्स नहीं भरा क्या
अब तक ?
बोला वो तो भर दिया उसी
का तो चेक दिया था आपने छेह हज़ार और पांच सो कैश। अब कैश क्यों - ये तो आप समझ ही
गए होंगे । तभी उसे ध्यान आया - बोला ध्यान से देखो । सर्विस या सेल्स टैक्स का
होगा । मैंने भी बिना पेपर पड़े बोला - आजा भाई चेक और कैश लेने ।
पर आज तो जैसे शुक्ला जी पर कोई
श्राप का ही असर था। डेवलपमेंट अथॉरिटी वाले घर आ धमके । रे ना तू नक्शा पास कराके
मकान बना रिया और न हाउस टैक्स दिया पिछले साल का । मकान टूटेगा थारा ।
मरता क्या ना करता । 25000 रुपये देकर जान छुटी । अब तक
फ़िल्म का नायक बनने का विचार धूमिल हो चूका था । फ़िल्म सिर्फ फ़िल्म ही होती है ।
बोले - कुछ नहीं हो सकता इस देश का । जहाँ नीचे से लेकर ऊपर तक। दायें से लेकर
बाएं तक। आगे से लेकर पीछे तक सब भ्रष्टाचारी हैं। वहाँ केवल एक ही जगह है जहाँ
भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सकती है । प्रभु की शरण !
मन ही मन शुक्ला जी शुक्र मना रहे
थे उपरवाले का की आज उनका सामना किसी वकील या अस्पताल से नहीं पड़ा अन्यथा एक मंजिल
बनाने की जगह एक मंजिल बेचनी पड़ती ।
"प्रवीन बहल खुशदिल"
(इस कहानी के सभी पात्र
काल्पनिक हैं व वास्तविक जीवन से इसका कुछ लेना-देना नहीं है)
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