Sunday 7 June 2015

....वृद्धावस्था - एक अभिशाप....

क़्त का प्रवाह रोके नहीं रुकता । समय किसी की जागीर नहीं जिसे अपनी तिजोरी में संजो के रख लिया जाये । वो तो एक आजाद पंछी की भांति स्वतंत्र है। स्वछन्द आकाश में एक सामान गति से उड़ता एक आजाद पंछी।

क्या रौब, क्या शानोशौकत, क्या रुतबा । इज़्ज़त से झुककर सलाम ठोक के जाते थे आने जाने वाले त्रिपाठी जी को। बनारस की जानी मानी हस्ती थे। वो भी हर व्यक्ति की मदद किया करते थे। कोई खाली हाथ न जाता था उस हवेली से। भरपूर साथ मिलता था त्रिपाठी जी को उनकी अर्धांगिनी रागिनी जी से । तीन बच्चों के माता पिता अपने को दुनिया का सबसे खुशनसीब इंसान महसूस करते थे।

किन्तु यह क्या ? आज केवल तीस वर्षों उपरान्त स्तिथि इतनी भयावह थी। मानो कोई सपना मात्र था । आँखों में चश्मा, झुकी कमर, सफ़ेद बाल, कमजोर व जर्जर होता शारीर एक लाठी के सहारे किसी तरह् अपने आपको खींचता एक बुजुर्ग वृद्धाश्रम के एक कोने में जाकर बैठ गया। मैं उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था । काफी जोर देने के उपरान्त जैसे ही मैनें उसे पहचाना अनायास ही मुंह से निकल गया - त्रिपाठी जी आ आ आप ! यकीं नहीं कर पा रहा था। फिर भी अपने जज्बात छुपाते हुए मैंने अपने आप को संभाला और पूछा। यहाँ कैसे? मेरी तरफ पहचानने वाली नज़रो से देखते हुए उस बुजुर्ग की आँखे छलक आयीं।

सारा माज़रा समझ आते मुझे देर ना लगी क्योंकि आज ऐसा वक़्त आ चुका है जहाँ हर गली कूचे में आपको कई त्रिपाठी जी मिल जायेंगे जो या तो वृद्धाश्रम पहुंचा दिए गए या पहुंचाए जा रहे हैं।

कोई रहम नहीं अपने पिता के लिए। कोई दया नहीं अपनी जननी अपनी माँ के लिए। ना समय है आज के बच्चों के पास ना उन्हें देने के लिए पैसा। अरे कम्बख्तों ! जरा आत्ममंथन करो। कैसे तुम्हारे वालीदेन ने तुम्हारी परवरिश की। रात रात भर जाग कर तुम्हारे दुखों को अपने ऊपर लिया । हर ख्वाहिश सर आँखों पर ली और उसे पूरा किया । और आज। आज तुम्हारे पास उनके लिए ना पैसा है ना समय। है तो सिर्फ ताने, गालियां , दुत्कार। उफ्फ्फ! ये वक़्त देखने से पहले मेरा सीना फट क्यों न गया ।

भरे पड़े हैं आज वृद्धाश्रम बुजुर्गों से। उनकी तरसती निगाहें गाहे-बगाहे किसी का इंतज़ार करती है की शायद उनसे मिलने कोई अपना आ जाये। उन्हें पैसा नहीं चाहिए । उन्हें चाहिए हमदर्दी, अपनापन। हर बुजुर्ग की आँखे आंसुओं में डूबी किसी को तलाशती दिखाई देंगी आपको। किन्तु हज़ारों में शायद ही कोई विरला किस्मत वाला होता होगा जो अनजान और बेनाम मौत के आगोश में ना जाए।

भागदौड़ चकाचोंध की दुनियां में आज बच्चे ये सोचने की जेहमत उठानी भी गंवारा नहीं करते की वो भी कभी बुजुर्ग होंगे। उनपर भी कभी ये पहाड़ टूटेगा। वक़्त कभी भी एक सा नहीं रहता। वो तो चलता रहता है अपनी रफ़्तार से।

खाली समय शुन्य की गहराईयों में झांकते हुए पूछता हूँ अपने आप से, पूछता हूँ उपरवाले से - कब तक आखिर कब तक झेलनी होगी ये मौत से बदतर जिंदगी इंसान को ।

और यदि इसका कोई उपाय है ही नहीं - तो बुढ़ापे से पहले की मौत ही अच्छी इंसान को। वही दे दे प्रभु! वही दे दे!

"प्रवीन बहल खुशदिल"

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