Tuesday 23 June 2015

...टीवी - रिश्तों का वायरस...

टीवी, एक ऐसी बीमारी जिसका इलाज़ ना तो कोई डॉक्टर कर सका ना कोई नीम-हकीम । कभी शहरों के राहीसों की शान हुआ करता था टीवी । पुरे मोहल्ले के लोग चल पड़ते थे टीवी देखने एक ही घर में । और जिस घर में वो टीवी होता था वो भी किसी साहूकार से कम नहीं था पूरी धौंस चलती थी बन्दे की ।

दूरदर्शन, एक ऐसा चैनल जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आया है । दूरदर्शन का वो घूमता लोगो कौन भूल पाया है भला। उसका अलग ही संगीत आज भी कानों में गूंजता है।

वो चित्रहार देखने के लिए सबका उत्सुकतापूर्वक इंतज़ार करना कौन भूल पायेगा भला ? वो रविवार को रामायण का एपिसोड जब पूरी गलियां मोहल्ले व शहर के शहर सुनसान हो जाया करते थे । नव वर्ष से पूर्व रात्रि पर मूंगफलियां, ग़ज़्ज़क, रेवड़ी लेकर बेसब्री से मनोरंजक कार्यक्रम का इंतज़ार होता था ।

कई पुराने ऐड भी आज तक दिमाग में यादों का एक बॉक्स लिए हुए हैं । कपिल देव का - पामोलिव दा जवाब नहीं हो या 555 कपडे धोने के साबुन की ऐड। एस.कुमार. शूटिंग-शर्टिंग शान बढ़ाएं भी कई बार दिखने वाला ऐड था । और न जाने कितने ऐड व कार्यक्रम आज भी जहन में ज्यों के त्यों हैं ।

धीरे-धीरे टीवी में क्रांति आई और आज सैंकड़ों चैनल की चॉइस आपके सामने है। किसी भी चैनल पर आपका कार्यक्रम पलक झपकते ही आपके सामने । आप रात को 2 बजे या किसी भी समय फ़िल्म, धारावाहिक, गाने, भजन, खेल, सोशल, क्विज़ या डिस्कवरी चैनल्स देख सकते हो । इससे बच्चों के ज्ञान में भी वृद्धि होती है ।

किन्तु आज यह टीवी कुछ बुराईयाँ भी अपने साथ लेके सामने आया है जैसे - आँखों की कमजोरी, सुनने की क्षमता में कमी, फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता इत्यादि । किन्तु एक समस्या बहुत बड़े रूप में सामने आ रही है । और वह है परिवार के सदस्यों में चैनल्स के चयन को लेकर होने वाले विवाद ।

बुजुर्ग माँ-बाप कहते हैं - भजन लगाओ ।
बेटा कहता है - क्रिकेट मैच देखना है।
बीवी को चाहिए - धारावाहिक ।
बच्चे तो बस - कार्टून के दीवाने हैं ।

सबके सब पागल हैं टीवी के लिए । कभी कभी गुस्से में रिमोट तोडना, टीवी ख़राब करना टीवी बंद कर देना वा हाथापाई तो अब आम बात हो गयी बल्कि अब तो कभी कभी गुस्से में मर्डर भी हो जाते हैं । टीवी ना हो गया - बीवी हो गयी । पूरा घर उस पर डिपेंड ।

क्रिकेट मैच की ऐसी दीवानगी । मानो बाउजी खुद ही सचिन तेंदुलकर हैं या बनेंगे । बच्चे भी खुद को डोरेमोन, भीम और किसी चिंछैन से कम नहीं समझते । और महिलायें । उनकी तो हद ही पार हो जाती है । ऐसे घुस जाती हैं टीवी में धारावाहिक देखने के लिए जैसे उन्हीं के ऊपर सब बीत रहा हो जैसे उन्ही के घर की कहानी हो । बड़ी बड़ी साजिशें, मर्डर, रोमांस वा हर मसाला होता है इन सेरिअल्स में ।

अरे कोई समझाओ इन्हें की मैडम ये सीरियल है हकीकत नहीं। इनसे कोई अच्छी बात सीखे ना सीखें, पर साजिशें व चालाकियां जरूर सीखीं जा सकती हैं जो घर परिवार तोड़ने के लिए काफी है।

कुल मिलाके इसे केवल मनोरंजन तक ही रहने दें घर की हकीकत में शामिल ना करें वरना तलाक होने में समय ना लगेगा और आपके लिए रह जायेगी - "डोली अरमानों की" ।


"प्रवीन बहल खुशदिल"


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