Wednesday 16 September 2015

--इंसान या नरपिशाच—

मानो कल ही की बात हो । समाज के लोग आपस में विचार विमर्श करके किसी भी विवाद को थाने पहुँचने से पहले ही आपस में निपटा लेते थे । मन में एक दूसरे के प्रति सम्मान होता था । दूसरे के दर्द को अपना समझा जाता था । लोगों में सहनशीलता थी ।


आज ! आज ना वो समाज है । ना दर्द समझने के लिए वो दिल । अपनों को अपना नहीं समझा जाता आज । फिर दूसरों की मदद करना तो बेवकूफी कहा जाता है । ना ही लोगों में सहनशीलता दिखती है ।

दो-दो रूपए के लिए खून कर दिया जाता है । जरा सी गाड़ी छु जाए बस । एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं । सच में घोर कलयुग आ ही गया । लड़ने वाले ये नहीं सोचते की सामने वाले के या स्वयं उसके घर में कोई उसका बेसब्री से इंतज़ार करता होगा । उस समय तो बस उसके दिमाग में क्रोध सातवें आसमान पर होता है । इंसान को कुछ नहीं सूझता ।

किन्तु एक बात समझ नहीं आती । सबकुछ वही - पृथ्वी, देश, शहर, सड़कें, रिश्ते, दिमाग । पैसा पहले भी होता था लोगों के पास - पर दिखावा नहीं । फिर इंसानियत में इतना बड़ा बदलाव क्यों ?

क्या यह मौसम का असर है - ग्लोबल वार्मिंग ।
या यह भागती दौड़ती फास्ट लाइफ का असर है ।
या केवल पैसे की जरुरत अथवा लालच ।
या केवल और केवल रौब दिखाने का तरीका ।
या जनसँख्या की बेतहाशा वृद्धि दर ।

माना की इंसान को तरक्की करनी चाहिए । आगे बढ़ना चाहिए किन्तु - इंसान की जान की कीमत पर ? कदापि नहीं । ऐसे तो इंसान में एक दूसरे के खून की प्यास बढ़ती जायेगी और मानव और जानवर में कोई अंतर ना रह जायेगा । वैसे भी आज इंसान क़त्ल करने के वीभत्स तरीकों में जानवर ही प्रतीत होता है । जिस प्रकार गला रेतकर वा शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके क़त्ल कर दिए जाते हैं वह किसी जानवर का शिकार का तरीका ही होता है ना की किसी इंसान का ।

हमें सहनशीलता कायम रखने के लिए कदम उठाने की जरुरत है । यदि आज इस मुद्दे पर कोई कदम ना उठाया गया तो भविष्य में हमारा समाज नरपिशाचों का समूह बनकर रह जायेगा ।

प्रवीन बहल "खुशदिल"'' 


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