Wednesday 27 May 2015

.... विरासत अपनों की ....

जब भी आज से 35 वर्ष पूर्व की समृतियों में खोता हूँ तो शरीर में एक कँपा देने वाली सिंहरन सी दौड़ जाती है। यादों की पूरी सिनेमास्कोप फ़िल्म बेतरतीब सी आँखों के सामने चलने लगती है और कुछ ही क्षणों में ओझल हो जाती है।

विकास के नाम पर हमने क्या पाया यह तो याद रखते हैं किन्तु क्या क्या कीमती संसाधन व रिश्ते खोये यह कम ही लोग महसूस करते हैं। एक क्षण को लंबी आह भरते हुए फिर से वही - सिनेमास्कोप फ़िल्म।

लहलहाते हुए खुले खेत खलियान, ताज़ी हवा, बड़े बड़े वृक्ष व उन सबसे अलग - अपनों का प्यार व अपनापन। और सिर्फ अपनों के लिए ही क्यों। किसी अनजान की मदद को भी दौड़ पड़ते थे। जी हां साहिब, आप ही के शहर की दास्ताँ है यह, किसी गाँव की नहीं। 

प्राकर्तिक संसाधनों के अतिरिक्त जो सबसे अनमोल चीज़ हमने खो दी वो है - अपनापन।


वो माँ की गोदी में मिलता सारे जहाँ का सुकून। वो पिता का ऊँगली पकड़कर मार्किट में घुमाना। वो बहिन से प्यार भरी नोंकझोंक। वो पड़ोस वाले परिवार के साथ कभी कभी बाहर गली में बैठकर डिनर करना। वो अपनापन कहाँ गया ? वो बच्चों के साथ छुपन छुपाई, लंगड़ी टांग, ऊँच नींच का पापड़ा, पिट्ठू गरम, कंच्चे ओर ना जाने कितने खेल खेलना। वो घंटों नंगे पैर छत पर पतंग उड़ाना। सब कहाँ गया। वो रात में छत पर या गली में सोने से पहले खाट पर लेटे लेटे चाँद तारों को निहारना। वो माँ का लोरी सुनाना। और सुबह तो ऐसी सुकून की होती थी कि जैसे उपरवाले ने कुछ देर के लिए अपने यहाँ पनाह दे दी हो। वो मंदिरों में लाउडस्पीकरो से आती भजनों की आवाज़। वो मस्जिदों से उठती अजान की मधुर गूँज की बात ही निराली थी। उफ्फ्फ्फ़ ! कभी कभी तो लगता है शायद में मरकर कहीं दूर दूसरा जनम ले चूका हूँ। किन्तु फिर अपने आपको च्यूंटी भरता हूँ तो ज्ञात होता है यह सपना नहीं हकीकत ही है। पर इतनी जल्दी इतना परिवर्तन ?

बैतरतीब खड़ी ऊँची ऊँची इमारतें। दौड़ती भागती गाड़ियों का बेतहाशा शोर। बड़े बड़े शॉपिंग मॉल। बड़ी बड़ी मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ। बड़े बड़े पुल। चमकती धमकती लाइटस्। हां - इन सब की जरुरत तो थी। पर नयी जनरेशन का दिन रात काम करना और वीकेंड पर अजीब से कपडे पहन कर डिस्को में रात रात भर पार्टीज करना। माँ बाप से कई कई दिनों तक बात न करना। रिश्तों को तार तार कर देना। रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के प्रति सवेदनहींन होना। बड़ों का आदर ना करना। क्या - इन सब की जरुरत थी हमें ?

दोस्तों के लिए तो जैसे जान हाज़िर। साहिब। 10-10 किलोमीटर पैदल ही चल पड़ते थे। गर्मियों में पेड़ के नीचे टुवल के पास ठंडी हवाओं के झोके। ना भविष्य की चिंता, ना रोटी की फिकर। वाह ! यही तो अपनी ऐश थी। और किसी अनजान की मदद करना ! यही अपनी कमाई। त्योहारों पर तो बस ऐसा माहौल होता था मानो, हमसे बड़ा कोई धन्ना सेठ नहीं। भई - पैसे के सेठ नहीं अपनेपन के जनाब। जेब में फूटी कोडी हो ना हो - पर राजा हम ही थे। दिल के राजा। किसी की शादी में रिश्तेदारों के यहाँ जाना हो या फिर अपने यहाँ का कोई शादी-ब्याह का फंक्शन। भाई 1 महीने से कम मेला ना लगता था। हंसी-मज़ाक, खेलकूद, इंताक्षरी सब कुछ धमाल। वो भी कम से कम 1 महीना और कॉलोनी वाले भी परिवार का हिस्सा बनकर इसमें शामिल होते थे। मानो उनके अपने घर का फंक्शन हो।

आज। क्या दोस्ती ? क्या रिश्तेदारी ? सब पैसा - सबकुछ पैसा। शादी या फंक्शन सिर्फ फॉर्मेलिटी। समय ही कहाँ है बाबू किसी के पास। सुबह रिश्तेदार आये अगले दिन निकल लो। भाई - छुट्टी नहीं मिली ऑफिस से। चाचा - दूकान बंद करके आया हूँ। फूफा - ऑफिस, मैं ही खोलता हूँ। अरे - किसे समझाते हो लपड़गंजु। सारा मसला पैसे का है। एक दिन न गए तो पैसे न कट जायेंगे ?

फिर वही पैसा - सबकुछ पैसा। साला बिस्तर से उतरते ही गाडी चाहिए - साहिबजादे को। और साहिबजादी हुईं तो घंटो तैयार होने में। जैसे - यही तो रह गयी हैं एक मधुबाला। अअअ मेरा मतलब कैटरीना कैफ। बस झटपट उल्टासीधा मेकअप किया और भागते हुए नाश्ता - पापा कैब निकल जायेगी। भई ये कैब किस चिड़िया का नाम है - हमें ऐब तो पता है जो आजकल के नोजवान करते हैं पर ये कैब। खैर छोड़ो मियाँ। अपनी बला से।

कुल मिला के पूरा महीना जी तोड़ मेहनत करो कमाओ और उड़ाओ।


क्या ऐसी संस्कृति और तरक्की का सपना देखा था हमनें। अब भी संभल जाओ बच्चों। पीछे मुड़ कर भी देखो। तेज़ चलो पर अपनी विरासत बचाके। अपने संस्कार संजोके।

बस दिल की इतनी ही भड़ास थी मेरी। आपसे शेयर करने को।

"प्रवीन बहल खुशदिल"

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