Friday, 29 May 2015

दोस्ती



कभी बेहतरीन वक़्त ऐसा ना गुजरा जैसा मेरा आज है।
दोस्तों में शाहनवाज, जमील, सलीम, बबलू पे मुझे नाज़ है।।

दोस्त तो और भी है किसी से भी मेरा गिला नहीं ।
पर अब से पहले शायद कोई ऐसा दोस्त मिला नहीं ।।


सारे रिश्ते नाते अब तो इनसे पीछै छूट गए ।
जाति, धर्म के सारे बंधन अब तो यारों टूट गए ।।


सारे दोस्त एक थाली में भोजन मिलके करते हैं।
शर्म आती है उन नेताओं पे जो धर्म के नाम पे लड़ते हैं।

Wednesday, 27 May 2015

.... विरासत अपनों की ....

जब भी आज से 35 वर्ष पूर्व की समृतियों में खोता हूँ तो शरीर में एक कँपा देने वाली सिंहरन सी दौड़ जाती है। यादों की पूरी सिनेमास्कोप फ़िल्म बेतरतीब सी आँखों के सामने चलने लगती है और कुछ ही क्षणों में ओझल हो जाती है।

विकास के नाम पर हमने क्या पाया यह तो याद रखते हैं किन्तु क्या क्या कीमती संसाधन व रिश्ते खोये यह कम ही लोग महसूस करते हैं। एक क्षण को लंबी आह भरते हुए फिर से वही - सिनेमास्कोप फ़िल्म।

लहलहाते हुए खुले खेत खलियान, ताज़ी हवा, बड़े बड़े वृक्ष व उन सबसे अलग - अपनों का प्यार व अपनापन। और सिर्फ अपनों के लिए ही क्यों। किसी अनजान की मदद को भी दौड़ पड़ते थे। जी हां साहिब, आप ही के शहर की दास्ताँ है यह, किसी गाँव की नहीं। 

प्राकर्तिक संसाधनों के अतिरिक्त जो सबसे अनमोल चीज़ हमने खो दी वो है - अपनापन।


वो माँ की गोदी में मिलता सारे जहाँ का सुकून। वो पिता का ऊँगली पकड़कर मार्किट में घुमाना। वो बहिन से प्यार भरी नोंकझोंक। वो पड़ोस वाले परिवार के साथ कभी कभी बाहर गली में बैठकर डिनर करना। वो अपनापन कहाँ गया ? वो बच्चों के साथ छुपन छुपाई, लंगड़ी टांग, ऊँच नींच का पापड़ा, पिट्ठू गरम, कंच्चे ओर ना जाने कितने खेल खेलना। वो घंटों नंगे पैर छत पर पतंग उड़ाना। सब कहाँ गया। वो रात में छत पर या गली में सोने से पहले खाट पर लेटे लेटे चाँद तारों को निहारना। वो माँ का लोरी सुनाना। और सुबह तो ऐसी सुकून की होती थी कि जैसे उपरवाले ने कुछ देर के लिए अपने यहाँ पनाह दे दी हो। वो मंदिरों में लाउडस्पीकरो से आती भजनों की आवाज़। वो मस्जिदों से उठती अजान की मधुर गूँज की बात ही निराली थी। उफ्फ्फ्फ़ ! कभी कभी तो लगता है शायद में मरकर कहीं दूर दूसरा जनम ले चूका हूँ। किन्तु फिर अपने आपको च्यूंटी भरता हूँ तो ज्ञात होता है यह सपना नहीं हकीकत ही है। पर इतनी जल्दी इतना परिवर्तन ?

बैतरतीब खड़ी ऊँची ऊँची इमारतें। दौड़ती भागती गाड़ियों का बेतहाशा शोर। बड़े बड़े शॉपिंग मॉल। बड़ी बड़ी मल्टिनॅशनल कम्पनियाँ। बड़े बड़े पुल। चमकती धमकती लाइटस्। हां - इन सब की जरुरत तो थी। पर नयी जनरेशन का दिन रात काम करना और वीकेंड पर अजीब से कपडे पहन कर डिस्को में रात रात भर पार्टीज करना। माँ बाप से कई कई दिनों तक बात न करना। रिश्तों को तार तार कर देना। रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के प्रति सवेदनहींन होना। बड़ों का आदर ना करना। क्या - इन सब की जरुरत थी हमें ?

दोस्तों के लिए तो जैसे जान हाज़िर। साहिब। 10-10 किलोमीटर पैदल ही चल पड़ते थे। गर्मियों में पेड़ के नीचे टुवल के पास ठंडी हवाओं के झोके। ना भविष्य की चिंता, ना रोटी की फिकर। वाह ! यही तो अपनी ऐश थी। और किसी अनजान की मदद करना ! यही अपनी कमाई। त्योहारों पर तो बस ऐसा माहौल होता था मानो, हमसे बड़ा कोई धन्ना सेठ नहीं। भई - पैसे के सेठ नहीं अपनेपन के जनाब। जेब में फूटी कोडी हो ना हो - पर राजा हम ही थे। दिल के राजा। किसी की शादी में रिश्तेदारों के यहाँ जाना हो या फिर अपने यहाँ का कोई शादी-ब्याह का फंक्शन। भाई 1 महीने से कम मेला ना लगता था। हंसी-मज़ाक, खेलकूद, इंताक्षरी सब कुछ धमाल। वो भी कम से कम 1 महीना और कॉलोनी वाले भी परिवार का हिस्सा बनकर इसमें शामिल होते थे। मानो उनके अपने घर का फंक्शन हो।

आज। क्या दोस्ती ? क्या रिश्तेदारी ? सब पैसा - सबकुछ पैसा। शादी या फंक्शन सिर्फ फॉर्मेलिटी। समय ही कहाँ है बाबू किसी के पास। सुबह रिश्तेदार आये अगले दिन निकल लो। भाई - छुट्टी नहीं मिली ऑफिस से। चाचा - दूकान बंद करके आया हूँ। फूफा - ऑफिस, मैं ही खोलता हूँ। अरे - किसे समझाते हो लपड़गंजु। सारा मसला पैसे का है। एक दिन न गए तो पैसे न कट जायेंगे ?

फिर वही पैसा - सबकुछ पैसा। साला बिस्तर से उतरते ही गाडी चाहिए - साहिबजादे को। और साहिबजादी हुईं तो घंटो तैयार होने में। जैसे - यही तो रह गयी हैं एक मधुबाला। अअअ मेरा मतलब कैटरीना कैफ। बस झटपट उल्टासीधा मेकअप किया और भागते हुए नाश्ता - पापा कैब निकल जायेगी। भई ये कैब किस चिड़िया का नाम है - हमें ऐब तो पता है जो आजकल के नोजवान करते हैं पर ये कैब। खैर छोड़ो मियाँ। अपनी बला से।

कुल मिला के पूरा महीना जी तोड़ मेहनत करो कमाओ और उड़ाओ।


क्या ऐसी संस्कृति और तरक्की का सपना देखा था हमनें। अब भी संभल जाओ बच्चों। पीछे मुड़ कर भी देखो। तेज़ चलो पर अपनी विरासत बचाके। अपने संस्कार संजोके।

बस दिल की इतनी ही भड़ास थी मेरी। आपसे शेयर करने को।

"प्रवीन बहल खुशदिल"

Tuesday, 26 May 2015

अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो

किसी के घर जब बेटी का जन्म होता है तो हर ओर यही स्वर गूंजता है - मुबारक हो लक्ष्मी आई है। वही बेटी बड़ी होकर अच्छी तालीम हासिल कर ले तो कहा जाता है - साक्षात सरस्वती है और यदि कोई बेटी बहादुरी का काम कर जाए तो कहते हैं - दुर्गा का रूप है!

किन्तु सत्य यह है कि यह सब केवल जुमले बन कर रह गए हैं। सदियों से चला आ रहा नारी का उत्पीड़न उसका तिरस्कार आज भी ज्यों का त्यों है। केवल उसे शोषित करने के तरीकों में बदलाव आते रहे हैं। जहाँ राजाओं के काल में उन्हें दासी बनाके उनका शोषण किया जाता था, वहीँ दशकों पहले उन्हें पति की मृत्यु के बाद उसी के साथ "सती" हो जाना पड़ता था। वहीँ बाल विवाह जैसी प्रथा नारी के लिए दुःस्वप्न से कम ना थी, किंतु यह था सत्य, कोई स्वप्न नहीं।

दुःख की परकाष्ठा तो तब महसूस की जा सकती है कि आज भी जब हम अपने आपको विकसित देशों के बराबर नई सोच का या आधुनिक युग का इंसान कहते है, इस युग में भी महिलाएं उपेक्षित हो रही हैं। आज भी उन पर अत्याचार हो रहा है। फिर चाहे वो दहेज़ प्रथा को लेकर हो या पुरुषों की घिनौनी मानसिकता के कारण। दंड तो केवल और केवल एक महिला को ही भोगना पड़ता है। 


हर नारी के मन में कभी न कभी यह विचार या कुंठा जरूर उत्पन्न हुई होगी कि - हे प्रभु! तूने मझे बेटी के रूप में जन्म क्यों दिया? अपने पुरे जीवनकाल में वो कई बार मरती है। चाहे किसी राक्षस की ललचाती नज़रों से बचने के लिए खुद को खुद में ही समेटना हो या शादी के बाद किसी अन्जान शख्स (शौहर) के लिए अपने माँ-बाप व परिवार का त्याग। दहेज़ के लिए मारने का भय हो या संतान के समय होने वाली असहनीय पीड़ा। इनमें से कोई भी वजह मौत का कारण बन सकती है। यह भय हर समय व्याप्त रहता है।

तुर्रा, उस पर यह कि यदि सब ठीक भी रहा तो कभी बच्चों को स्कूल भेजना, उनको पढ़ाना, शौहर का नाश्ता, ऑफिस का खाना, कपडे, बर्तन, सफाई..... ओह्ह्ह ! जीती कब है वह अपनी जिंदगी?

वहीँ बात बेटों कि की जाये तो वल्लाह! जैसे साहिबजादे ऊपर से ही वसीयत लिखवा के लाये हैं, भरपूर मौजमस्ती वा शाही जीवन की। कोई बंदिश ही नहीं, दोस्तों के साथ लेट नाईट पार्टी हो या किसी लड़की के साथ चक्कर.... यह सब छोटी बात हैं! कोई रोकटोक नहीं, और हो भी क्यों - माशाल्लाह घर के चिराग जो हैं साहिबजादे। हद तो तब हो जाती है जब साहिबजादे अपने घर को तो घर समझते हैं पर दोस्तों के साथ यदि बाइक से गली में निकले तो ये मोटी-मोटी गालियां वो भी लाउडस्पीकर जैसी जोरदार आवाज में - भई अपना घर और गली नहीं है ना।

सलाम करता हूँ मैं एक बेटी को, एक पत्नी को, एक माँ को! नारी के जीवन की कठिनाईयो को महसूस करना चाहता हूँ मैं! आकाश की गहराइयों में निहारते हुए खुदा से ये दुआ करता हूँ की "अगले जन्म मोहे बिटिया ही कीजो"

- प्रवीन बहल 'खुशदिल'

Monday, 25 May 2015

पति तेरी यही कहानी



माँगा था घी, दुकानदार ने तेल दिया।

भीड़ थी ज्यादा बाहर को ठेल दिया।।


रही सही कसर घर जा के हो गयी पूरी

बीवी ने बेलन से बुरी तरह् पेल दिया।।










Boyz Vs Girlz

...... आज के लड़के......

100 की स्पीड के टशन में गाडी चलाते हैं।

पैग होता हाथ में और सिगरेट का धुंआ उड़ाते हैं।।

माँ बाप कैसे भी कमाएं उन्हें फर्क नहीं पड़ता...


वो तो गाड़ी में छुप छुप के दस दस घुमाते हैं।।



...... आज की बहुत सी लड़कियां .......

अपने बॉयफ्रेंड के साथ आज ये डिस्को जाती है।

म्यूजिक के शोर की मस्ती में दो पैग लगाती है।।

घर जा के हो जाती है सीधी साधी सी.......


उसको छोड़ के अगले दिन बॉयफ्रेंड दूजा बनाती हैं।।




राजनीति एक्सप्रेस :)


केजरीवाल ने जीती दिल्ली, मोदी जीता देश


राहुल बाबा छुपते फिर रहे, बदल के अपना भेष!